हिन्दू धर्म में गंगाजी का क्या महत्त्व है इसके बारे में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। लगभग हर ग्रन्थ में माता गंगा के विषय में कोई ना कोई वर्णन मिलता है। गंगा जी के बारे में सबसे पहला वर्णन हमें ऋग्वेद में मिलता है। ऋग्वेद के १०वें मंडल के ७५वें सूक्त, जिसे नदीस्तुति सूक्त कहा जाता है, उसमें कई नदियों का वर्णन है और यहीं हमें गंगा का भी वर्णन मिलता है। इसी सूक्त के ५वें श्लोक में हमें गंगा और उनके साथ यहाँ ९ और नदियों का वर्णन है।
इस श्लोक में कहा गया है कि "हे गंगा, यमुना, सरस्वती, शुतुद्रि, परुष्णी, असिकिनी, मरुवृद्धा, वितस्ता, अर्जीकिया तथा सुषोमा, मेरा नमस्कार स्वीकार करो।" ऋग्वेद में गंगा का यही पहला और एकमात्र वर्णन दिया गया है। इसके बाद गंगा का विस्तृत वर्णन हमें स्मृति ग्रंथों में मिलता है। स्मृति ग्रंथों में गंगा का सबसे प्राचीन वर्णन हमें वाल्मीकि रामायण में मिलता है जहाँ हमें इसकी उत्पत्ति की कथा मिलती है।
रामायण के बालकाण्ड के ३५वें सर्ग में ताड़का वध के बाद श्रीराम और लक्ष्मण महर्षि विश्वामित्र के साथ गंगा तट पर रुकते हैं। तब श्रीराम महर्षि विश्वामित्र से गंगा की कथा सुनाने की प्रार्थना करते हैं। इसपर विश्वामित्र उन्हें गंगा की उत्पत्ति की कथा सुनाते हैं। इस कथा के अनुसार पर्वतों के राजा हिमालय की अपनी रानी मैनावती से दो कन्याएं थी जिनके रूप की कहीं कोई तुलना नहीं थी। वे थी गंगा और उमा। उनमें से गंगा ज्येष्ठ और उमा (पार्वती) छोटी कन्या थी।
जब दोनों बड़ी हुई तो देवराज इंद्र और अन्य देवताओं ने हिमालय के पास जाकर गंगा को स्वर्गलोक के लिए मांग लिया। देवताओं के कल्याण के लिए हिमालय ने गंगा को देवताओं के साथ स्वर्ग भेज दिया जहाँ वो त्रिपथगा (तीन मार्गों से चलने वाली) के नाम से विख्यात हुई। इसका कारण ये थे थे कि सबसे पहले गंगा आकाश मार्ग से चली जहाँ वे आकाश गंगा कहलाई, फिर स्वर्गलोक में देवगंगा नाम से प्रविष्ट हुई और अंत में रसातल तक गंगा के रूप में पहुंची। इन्ही तीन मार्गों के कारण उनका नाम त्रिपथगा पड़ा।
हिमालय की दूसरी पुत्री उमा ने घोर तप कर भगवान रूद्र को अपने पति के रूप में प्राप्त किया। विवाह के बाअद महादेव ने प्रसन्न होकर माता पार्वती के साथ १०० दिव्य वर्षों तक विहार किया किन्तु फिर भी उनका तेज प्रकट नहीं हुआ। ये देख कर देवता डर गए कि अब यदि उनका तेज प्रकट हुआ तो उसे कौन धरण कर सकेगा? ये सोच कर सभी देवताओं ने महादेव से प्रार्थना की कि वे अपना तेज माता के गर्भ में स्थापित ना करें। इसे मान कर महादेव ने अपना तेज पृथ्वी पर छोड़ दिया जिसे देवताओं के अनुरोध पर सात जिह्ववाले अग्निदेव ने रख लिया। किन्तु महादेव के उस तेज को अग्निदेव संभाल नहीं पाए।
तब वे ब्रह्माजी के पास गए और उनसे उपाय पूछा। तब ब्रह्माजी ने अग्निदेव से कहा कि वे उस तेज को उमा की बड़ी बहन आकाशगंगा के गर्भ में स्थापित कर दें। वे उमा की बड़ी बहन है अतः उनके पुत्र को वे अपना ही पुत्र मानेगी। तब अग्निदेव ने ऐसा ही किया और महादेव के तेज को गंगा में सब ओर बिखेर दिया। किन्तु उस तेज को माता गंगा भी सहन नहीं कर पायी और अग्निदेव की सम्मति से उन्होंने उसे हिमालय के पार्श्वभाग में स्थापित कर दिया। वहीँ पृथ्वी पर उस तेज से छह मुख वाले एक बालक का जन्म हुआ। देवताओं ने छह कृतिकाओं को उसका पालन करने को कहा और उन्हें के नाम पर वे कार्तिकेय कहलाये। आगे चल कर वे देवताओं के सेनापति बने।
उधर अपने पति के तेज से स्वयं के गर्भ से संतान ना होने से दुखी होकर माता पार्वती ने सभी देवताओं को ये श्राप दे दिया कि वे भी अपनी पत्नियों के गर्भ से संतान प्राप्त नहीं कर सकेंगे। इसके उन्होंने उसी क्रोध में पृथ्वी माता को भी श्राप दिया कि वो भी पुत्र सुख से वंचित रहेगी। इसके बाद महादेव की कृपा से उनके तेजसे ही पृथ्वी धन-धान्य से परिपूर्ण हो गयी और सभी पृथ्वीवासी पृथ्वी की ही संतान कहलाने लगे।
उसी काल में अयोध्या में श्रीराम के पूर्वज महाराज सगर का राज्य था। उनके ६०००० पुत्र थे। उन्होंने एक बार महान अश्वमेघ यज्ञ किया जिसके अश्व को इंद्र एक राक्षस का भेष बना बना कर भगा ले गए। तब महाराज सगर ने अपने ६०००० पुत्रों को ये आज्ञा दी कि किसी भी प्रकार उस अश्व को खोज निकालो। इसपर उन ६०००० राजकुमारों ने पृथ्वी पर उस अश्व को खोजने के क्रम में बड़ा उत्पात मचाया। उसी क्रम में उन्हें वो अश्व कपिल मुनि के आस पास घूमता मिला।
हालाँकि कपिल मुनि को इसके बारे में कुछ पता नहीं था किन्तु जब उन सभी राजकुमारों ने उस अश्व को वहां देखा तो उन्हें लगा कि उन्होंने ही इस अश्व को चुराया है। ये देख कर उन्होंने कपिल मुनि को अपशब्द बोलना आरम्भ कर दिया। इससे क्रुद्ध होकर कपिल मुनि ने सिर्फ एक ही हुंकार में महाराज सगर के उन ६०००० पुत्रों को भस्म कर दिया। जब महाराज सगर के पुत्र वापस नहीं लौटे तो उन्होंने अपने पौत्र अंशुमान को उनकी खोज में भेजा।
तब अंशुमान उनकी खोज में गए और उन्हें पता चला कि उनके ६०००० चाचा मृत्यु को प्राप्त कर चुके हैं। तब उन सब को जलांजलि देने के लिए अंशुमान ने जल खोजा पर वो उन्हें नहीं मिला। तब पृथ्वी को सँभालने वाले दिग्गजों ने उसे सांत्वना दी और कहा कि अभी इस अश्व को ले जाकर अपना यज्ञ पूर्ण करो और फिर किसी प्रकार हिमालय राज की ज्येष्ठ पुत्री को इनके राख से स्पर्श करवाओ। इससे ये सभी मोक्ष को प्राप्त करेंगे।
अंशुमान ने ऐसा ही किया। वे अश्व को वापस लेकर गए और महाराज सगर को सारी बातें बताई। उस समय महाराज सगर ने उस यज्ञ को पूर्ण किया और फिर गंगा को पृथ्वी पर कैसे लाया जाये उसी उपक्रम के बारे में सोचते हुए ३०००० वर्षों के बाद वे मृत्यु को प्राप्त हो गए। उनके बाद उनके पौत्र अंशुमान को राजा बनाया गया। अंशुमान के पुत्र का नाम था दिलीप। अपने चाचाओं के उद्धार के लिए उन्होंने दिलीप को राज्य पर बिठाया और फिर हिमालय पर जाकर माता गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए ३२००० वर्षों तक घोर तप किया। अंततः वे भी मृत्यु को प्राप्त हुए।
उसके बाद उनके पुत्र दिलीप दुःख में डूब गए और सोचने लगे कि किस प्रकार वे अपने पूर्वजों का उद्धार करें? ऐसे ही ३०००० वर्ष बीत गए और दिलीप की भी मृत्यु हो गयी। तब उनके एकमात्र पुत्र भगीरथ ने अपने पूर्वजों के उद्धार का बीड़ा उठाया। उनका कोई पुत्र नहीं था इसीलिए राज्य का भार मंत्रियों पर सौंप कर वे गोकर्णतीर्थ में घोर तपस्या में जुट गए। उन्होंने वहां १००० वर्षों तक घोर तपस्या की जिससे अंततः भगवान ब्रह्मा प्रसन्न हुए।
जब परमपिता ने भगीरथ से वरदान मांगने को कहा तो उन्होंने माता गंगा को पृथ्वी पर लाने की प्रार्थना की ताकि उनके पूर्वजों को मुक्ति मिल सके। तब ब्रह्मा जी ने कहा - "हे पुत्र! मेरी आज्ञा पर गंगा पृथ्वी पर आ तो जाएगी किन्तु उसका वो असीम वेग कौन संभालेगा? गंगा के वेग से पृथ्वी निश्चय ही रसातल में समा जाएगी। इसीलिए तुम पहले महादेव को प्रसन्न करो। उनके अतिरिक्त मैं किसी और को नहीं देखता जो गंगा के वेग को सँभालने में सक्षम हो।"
तब परमपिता की आज्ञा पर भगीरथ ने अंगूठे पर खड़े रह कर १ वर्ष तक भोलेनाथ की तपस्या की। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर महादेव ने उसे दर्शन दिए और कहा कि मैं अवश्य ही गंगा के वेग को धारण करूँगा। ये कह कर उन्होंने गंगा का आह्वान किया। ब्रह्मा जी और भगवान शंकर की आज्ञा पाकर माता गंगा बेमन से पृथ्वी की ओर भारी वेग से चली। वे स्वर्गलोक छोड़ना नहीं चाहती थी इसीलिए उन्होंने सोचा कि मैं इतने वेग से पृथ्वी पर गिरूँगी कि भोलेनाथ को लेकर पाताल तक पहुंच जाउंगी।
महादेव को माता गंगा के उस अभिमान का भान हो गया। इसीलिए क्रोधित होकर उन्होंने गंगा को अदृश्य करने का विचार किया। उधर गंगा जी अतुल वेग से भोलेनाथ के सर पर गिरी किन्तु महादेव ने उन्हें अपनी जटाओं में बांध लिया और गंगा सारे प्रयास कर के भी उससे निकल ना सकी। जिस दिन महादेव ने माता गंगा को अपनी जटाओं पर धारण किया, वो दिन संसार में गंगा सप्तमी या गंगा जयंती के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
जब भगीरथ ने देखा कि माता गंगा तो भोलेनाथ की जटाओं से फंस चुकी है और बाहर निकल ही नहीं पा रही तो उन्हें मुक्त करवाने के लिए उन्होंने पुनः बहुत काल तक भोलेनाथ की घोर तपस्या की। तब भगवान शंकर ने बिन्दुसरोवर में माता गंगा को अपनी जटाओं से मुक्त कर दिया। वहां वे सात भाग में विभक्त हो गयी। पूर्व की ओर जो तीन धाराएं चली वे थी - ह्लादिनी, पावनी एवं नलिनी। इसी प्रकार पश्चिम की ओर तीन धाराएं चली - सुचक्षु, सीता और सिंधु। इसके बाद जो एक धारा बची वो भगीरथ के पीछे पीछे चल दी और अंततः पृथ्वी पर पहुंची। जिस दिन माता गंगा भगीरथ के पीछे-पीछे पृथ्वी पर पहुंची वो दिन गंगा दशहरा के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
जब गंगा पृथ्वी पर आयी तो उनके वंदन के लिए समस्त देवता, पितृगण, ऋषि, दैत्य, राक्षस, गन्धर्व, किन्नर, नाग, यक्ष, अप्सराएं इत्यादि पीछे-पीछे चल रहे थे। मार्ग में राजर्षि जह्नु यज्ञ कर रहे थे। गंगा ने अपने जल प्रवाह से उनके यञमंडप को बहा दिया। इसपर क्रोधित होकर उन्होंने गंगा को पी लिया। अब तो भगीरथ सहित सभी प्राणी बड़े चिंतित हुए और उन्होंने जह्नु की स्तुति की। इससे प्रसन्न होकर उन्होंने गंगा को अपने कान के छिद्र से बाहर छोड़ दिया। इसी कारण गंगा राजर्षि जह्नु की पुत्री कहलाई और उनका एक और नाम जाह्नवी हुआ।
तत्पश्चात भगीरथ गंगा को लिए उस स्थान पर गए जहाँ पर कपिल मुनि ने उनके पूर्वजों को भस्म किया था। गंगा का स्पर्श पाते ही वे सभी स्वर्ग को गए। तब वहां स्वयं परमपिता ब्रह्मा ने आकर भगीरथ को उनके अद्भुत कर्म के लिए साधुवाद दिया। उन्होंने कहा - "वत्स! तुम्हारे प्रपितामह सगर ने गंगा को पृथ्वी पर लाने का प्रयत्न किया पर वे सफल नहीं हुए। उसके बाद अंशुमान ने भी ये प्रयास किया और वे भी विफल रहे। तत्पश्चात दिलीप भी गंगा को पृथ्वी पर ना ला सके। किन्तु तुमने अपने दृढ निश्चय से ये असंभव कार्य संभव कर दिया।
इसके बाद परमपिता ने भगीरथ को गंगा स्नान के पश्चात स्वर्ग प्रदान किया और उनके नाम पर गंगा का एक और नाम भागीरथी रखा। तभी से गंगा निरंतर पृथ्वी पर बह रही है और कलियुग के अंत में जब भगवान कल्कि प्रकट होंगे उस समय गंगा पृथ्वी को छोड़ कर पुनः स्वर्ग को चली जाएगी, ऐसी मान्यता है।
माता गंगा की उत्पत्ति की एक कथा हमें महाभारत के सभा पर्व में भी मिलती है जिसके अनुसार जब भगवान विष्णु ने वामन अवतार लिया तो दैत्यराज बलि के अभिमान को तोड़ने के लिए उन्होंने अपना आकार इतना अधिक बढ़ा लिया कि वे ब्रह्माण्ड के छोर तक जा पहुंचे। उनका एक पैर ब्रह्माण्ड कपाल तक जा पहुंचा और उसकी ठोकर से उसमें छिद्र हो गया। उसी छिद्र से एक दिव्य नदी प्रकट हुई जो उनके चरणों का प्रक्षालन करते हुए समुद्र में जा मिली।
इसके अतिरिक्त महाभारत में माता गंगा की भूमिका तो हम जानते ही हैं। महाभारत के अदि पर्व के अंतर्गत सम्भपर्व के अनुसार इक्षवाकु कुल में महाभिष नाम के एक महान राजा हुए। एक बार वे ब्रह्माजी की सेवा में उपस्थित थे कि उसी समय माता गंगा ब्रह्माजी से मिलने आयी। उस समय पवन के वेग से उनका वस्त्र थोड़ा सरक गया जिसे देख कर सभी देवताओं ने अपना मुख नीचे कर लिया किन्तु महाभिष गंगा को देखते ही रहे।
ये देख कर परमपिता ने उन्हें पुनः मृत्युलोक में जाने का श्राप दिया। तब महाभिष ने ब्रह्माजी की आज्ञा से उस समय के हस्तिनापुर सम्राट महाराज प्रतीप को अपने पिता के रूप में चुना। उधर वापस जाते हुए गंगा ने मार्ग में अष्टवसुओं को देखा जो निष्तेज से उन्ही से मिलने आ रहे थे। तब गंगा जी के पूछने पर उन्होंने बताया कि उन्होंने महर्षि वशिष्ठ की गाय के अपहरण का प्रयास किया इसी कारण उन्होंने उन्हें मृत्युलोक में जन्म लेने का श्राप दे दिया है।
उन्होंने माँ गंगा से प्रार्थना की कि वही मृत्युलोक में उनकी माता बनें और जन्म लेते ही उन्हें मुक्त कर दें। महर्षि वशिष्ठ के श्राप के कारण केवल एक वसु जिनका नाम द्यो था और जिन्होंने सबको महर्षि की गाय चुराने की सम्मति दी थी, वही पृथ्वीलोक पर लम्बे समय तक रहेंगे। गंगा ने उनकी प्रार्थना मान ली।
कुछ समय बाद जब महाराज प्रतीप गंगा तट पर बैठे थे तो गंगा स्त्री का वेश बना कर उनके पास आई और उनकी दाहिनी जंघा पर बैठ कर उनसे प्रणय निवेदन किया। तब महाराज प्रतीप ने कहा कि "हे देवी! तुम मेरी दाहिनी जंघा पर बैठी हो और ये केवल पुत्र, पुत्री और पुत्रवधु का आसन है। इसीलिए मैं तुम्हे अपनी पत्नी के रूप में नहीं अपना सकता किन्तु मैं तुम्हारा वरण अपनी पुत्रवधु के रूप में करता हूँ।" गंगा ने उनकी ये बात मान ली।
आगे चल कर महाराज प्रतीप और महारानी कुक्षि के पुत्र के रूप में महाभिष ही जन्में जिनका नाम शांतनु हुआ। जब शांतनु युवा हुए तो गंगा प्रतीप को दिए वचन और महाभिष और वसुओं को श्रापमुक्त करने के लिए उनके पास आई। उन्हें देखते ही शांतनु मोहित हो गए और फिर गंगा ने इस शर्त पर कि वे उनके किसी भी कार्य का कारण नहीं पूछेंगे, उनसे विवाह कर लिया। इसके बाद ७ वसु महाराज शांतनु और गंगा के पुत्र के रूप में जन्में और गंगा ने सभी को जन्मते ही गंगा में बहा कर उनके श्राप से मुक्त कर दिया। अपने वचन के कारण शांतनु उनसे कुछ पूछ ना सके।
किन्तु जब आठवां वसु पुत्र के रूप में जन्मा और गंगा उसे भी बहाने चली तो शांतनु अपने आप को रोक ना सके और उन्हें इस कृत्य से रोक दिया। तब गंगा ने उन्हें अपना वास्तविक परिचय दिया और वसुओं के श्राप की बात बताई। फिर अपने अंतिम पुत्र को लेकर गंगा वहां से चली गयी और कुछ समय बाद महर्षि वशिष्ठ, महर्षि बृहस्पति, महर्षि शुक्राचार्य और भगवान परशुराम से उसे शिक्षा दिलवाकर पूर्ण योग्य बना दिया। फिर माता गंगा ने उस बालक को महाराज शांतनु को सौंप दिया। वही आगे चलकर महान भीष्म कहलाये।
वामन पुराण के अनुसार जब भगवान वामन के चरणों से गंगा निकली तो परमपिता ब्रह्मा ने उसे अपने कमंडल में रख लिया। आगे चल कर वही गंगा ब्रह्माजी के कमंडल से निकल कर भगीरथ के तप के कारण भगवान शंकर की जटाओं में समाई। इस प्रकार एकमात्र गंगा ही ऐसी है जिसे त्रिदेवों के सानिध्य का अवसर मिला। इसी कारण हिन्दू धर्म में गंगा का महत्त्व सबसे अधिक बताया गया है।
कुछ कथाओं के अनुसार जब गंगा महादेव के मस्तक पर गिरी तो महादेव ने उन ब्रह्मचारिणी को स्पर्श करने के कारण उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकारा। इसीलिए कुछ ग्रंथों में गंगा को महादेव की पत्नी भी माना जाता है। अपनी पत्नी को अपने मस्तक पर रख कर वे पुरुष के जीवन में पत्नी के महत्त्व को दर्शाते हैं।
समुद्र मंथन से जब अमृत निकला और जब उसे देव धन्वन्तरि लेकर भागे तो उसकी बूंदें चार स्थानों पर गिरी और उसी कारण वहां पर महाकुम्भ का आयोजन होना आरम्भ हुआ। ये चार स्थान हैं प्रयाग, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन। इन चार स्थानों में दो स्थानों पर अमृत गंगा में ही गिरा था। वे स्थान हैं प्रयाग और हरिद्वार। इस कारण भी गंगा जी का महत्त्व और भी अधिक बढ़ जाता है।
गंगा का माहात्म्य तो ऐसा है कि वर्षों भी लिखते रहे तो समाप्त ना हो। किन्तु यदि वैज्ञानिक रूप से भी देखें तो उनका जल अमृत ही है। वैज्ञानिक रूप से भी ये सिद्ध हो चुका है कि गंगाजी का जल चाहे कितने भी समय तक रख दो, उसमें कभी कीड़े नहीं पड़ते। तो आप और हम भाग्यशाली हैं कि हमें गंगा माता के सानिध्य का अवसर मिला है। जय माँ गंगे।
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