गरुड़

गरुड़
ये तो हम सब जानते ही हैं कि महर्षि कश्यप ने प्रजापति दक्ष की १७ कन्याओं से विवाह किया जिससे समस्त जातियों की उत्पत्ति हुई। उन्ही में से दो कन्याएं थी - कुद्रू और विनता। कुद्रू ने महर्षि कश्यप से १००० और विनता ने केवल २ पराक्रमी पुत्रों का अनुरोध किया। महर्षि की कृपा से ऐसा ही हुआ। कुद्रू ने १००० और विनता ने २ अण्डों का प्रसव किया।

५०० वर्ष बीत गए। इसके बाद कुद्रू के सभी पुत्र उन अण्डों को फोड़ कर बाहर आ गए। वहीँ से नाग जाति का आरम्भ हुआ और उनमें से ज्येष्ठ थे शेषनाग। किन्तु विनता के अण्डों में कोई हलचल नहीं हुई। इससे व्यग्र होकर विनता ने एक अंडा स्वयं ही फोड़ दिया। उससे जो पुत्र हुआ उसका केवल आधा शरीर ही विकसित हुआ था। वो अपनी माता के उस अविवेक के लिए क्रोधित हुआ और उसने विनता को श्राप दिया कि उसे ५०० वर्ष तक दासत्व भोगना होगा।

बाद में अपनी माता को क्रोधवश श्राप देने के कारण उसे लज्जा आयी और उसने कहा कि 'आप अपने इस अंडे का ध्यान रखें। समय आने पर इससे जो पुत्र उत्पन्न होगा वही आपको इस श्राप से मुक्त करवाएगा।' ये कह कर वो आकाश में उड़ गया और तप कर सूर्यनारायण का सारथि बना। उसका नाम था 'अरुण'।

उधर एक दिन कुद्रू और विनता में एक विवाद हो गया। विनता का कहना था कि समुद्र मंथन से जो उच्चैःश्रवा नामक अश्व निकला था, वो पूर्णतः सफ़ेद है। पर कुद्रू के अनुसार उसका शरीर सफ़ेद है किन्तु पूंछ काली। इस बात पर दोनों में शर्त लग गयी कि जिसकी बात सही होगी, दूसरी को उसकी दासी बन कर रहना होगा।

कुद्रू ने शर्त जीतने के लिए अपने पुत्रों से कहा कि वो उच्चैःश्रवा के पूछ से लिपट जाएँ किन्तु शेषनाग, वासुकि और अन्य नागों ने उसकी ये बात नहीं मानी। तब उसने अपने ही पुत्रों को श्राप दिया कि उनका नाश जन्मेजय के नागयज्ञ में हो जाएगा। उस श्राप से डर कर कुद्रू का एक पुत्र कर्कोटक उच्चैःश्रवा के पूछ से लिपट गया जिससे कुद्रू छल से शर्त जीत गयी। शर्त के अनुसार विनता उसकी दासी बन गयी।

५०० वर्ष और बीत गए और तब उस दूसरे अंडे से महापराक्रमी गरुड़ का जन्म हुआ। जन्म लेते ही वो भूख से व्याकुल हो भोजन की खोज में आकाश में उड़ गया। गरुड़ का अद्भुत रूप देख कर देवता डर गए। उन्हें ये भ्रम हुआ कि अग्निदेव ने अपने रूप का विस्तार कर लिया है। जब वे सब अग्नि के पास गए तो उन्होंने बताया कि 'वो मैं नहीं बल्कि कश्यप पुत्र गरुड़ है।' तब सभी देवताओं ने गरुड़ की स्तुति की।

तब देवताओं की प्रार्थना पर गरुड़ ने अपने शरीर को समेत लिया और अपना आकर छोटा कर लिया। अपनी माता के दासी होने के कारण गरुड़ को भी कुद्रू और नागों की बात माननी पड़ती थी। एक दिन उन्होंने अपनी माता से पूछा कि 'कुद्रू तो उनकी विमाता है इसीलिए उनकी आज्ञा मानने में कोई हानि नहीं किन्तु क्या कारण है कि मुझे इन नागों की भी आज्ञा माननी पड़ती है?' तब विनता ने उन्हें सारी बातें बताई।

इस पर अपनी माता को दासत्व से मुक्त कराने के लिया गरुड़ ने नागों से पूछा कि वो ऐसा क्या करें जिससे उनकी माता दासत्व से मुक्त हो जाये? तब कुद्रू और सभी नागों ने कहा कि यदि तुम हमारे लिए अमृत ले आओ तो हम तुम्हारी माता को दासत्व से मुक्त कर देंगे। तब गरुड़ अमृत लाने के लिए स्वर्ग की ओर चले। जाने से पहले उन्होंने अपनी माता से पूछा कि वो भोजन कैसे करेंगे? तब विनता ने कहा कि 'मार्ग में एक एकांत प्रदेश में सहस्त्रों निषाद रहते हैं, तुम उन्हें ही खाकर अपनी भूख मिटाओ।'

तब गरुड़ अमृत के लिए स्वर्ग की ओर उड़े। मार्ग में वे निषादों के प्रदेश में रुके और अपनी पंखों से इतनी धूल उड़ाई कि निषादों के साथ सारा प्रदेश ही उनके मुख में चला आया। गलती से उन निषादों के साथ एक ब्राह्मण भी गरुड़ के मुख में चले गए। तब गरुड़ ने उन्हें अपने मुख से बाहर निकलने को कहा। इस पर उन ब्राह्मण ने कहा कि 'ये निषाद कन्या मेरी पत्नी है, इसे छोड़ कर मैं नहीं निकल सकता।' तब गरुड़ ने उन दोनों को बाहर जाने दिया और शेष निषादों को खा कर अपनी भूख मिटाई।

मार्ग में उसे अपने पिता महर्षि कश्यप मिले। उन्होंने उसका हाल समाचार पूछा। इसपर गरुड़ ने कहा कि 'पिताश्री! बांकी सब तो कुशल है किन्तु मुझे पर्याप्त भोजन प्राप्त नहीं होता। अभी अभी मैंने सहस्त्रों निषादों का भक्षण किया है किन्तु फिर भी मेरी भूख शांत नहीं हुई है।' तब महर्षि कश्यप ने कहा कि 'यही पास में एक सरोवर है जहाँ एक हाथी और के कछुआ एक दूसरे को जल के अंदर और बाहर खींचते रहते हैं। ये दोनों पूर्वजन्म में भाई थे किन्तु धन के विवाद के कारण एक दूसरे को श्राप दे कर हाथी और कछुए की योनि में जन्मे है और सदा युद्ध करते रहते हैं।'

'अब समय आ गया है कि इन दोनों को इन योनियों से मुक्ति मिले। इनमें से हाथी का शरीर ६ योजन ऊँचा और १२ योजन लंबा है। कछुआ ३ योजन ऊँचा और १० योजन गोल है। तुम जाकर उन दोनों को खाकर उन्हें इस योनि से मुक्त करो।' अपने पिता की बात सुनकर गरुड़ उस सरोवर के पास गए। उन्होंने अपने एक पंजे से हाथी को और दूसरे पंजे से कछुए को पकड़ लिया और आकाश में उड़ गए।

अब समस्या ये थी कि इतने विशाल जंतुओं को किस स्थान पर बैठ कर खाया जाये। तब मार्ग में उन्हें एक विशाल वटवृक्ष मिला। उसने गरुड़ से कहा कि मेरी एक शाखा १०० योजन लम्बी है। तुम मेरी उसी शाखा पर बैठ कर इन दोनों का भक्षण करो। किन्तु जैसे ही गरुड़ उस शाखा पर बैठे, उनके भार से वो १०० योजन की शाखा टूट गयी। जब वो शाखा गिर रही थी तो गरुड़ ने देखा कि उसी शाखा पर ६०००० बालखिल्य ऋषि तपस्या कर रहे हैं। ये देख कर उनकी रक्षा के लिए उन्होंने अपनी चोंच से वो शाखा पकड़ ली और पुनः आकाश में उड़ते रहे।

जब बालखिल्यों ने उनका ऐसा प्रचंड पराक्रम देखा तो उन्होंने ही उन्हें 'गरुड़' का नाम दिया जिसका अर्थ होता है भारी भार लेकर उड़ने वाला। गरुड़ इसी प्रकार बहुत काल तक वो भार लेकर उड़ते रहे। मार्ग में उन्हें पुनः अपने पिता महर्षि कश्यप मिले। जब कश्यप महर्षि ने देखा कि बालखिल्य उस शाखा से लटके हुए हैं तो उन्होंने उनसे प्रार्थना की कि वे उस डाल को छोड़ कर कहीं और चले जाएँ। उनकी प्रार्थना सुनकर सभी बालखिल्य मुनि उस शाखा को छोड़ कर हिमालय पर चले गए। वैसे भी उन्ही बालखिल्यों के आशीर्वाद से गरुड़ की उत्पत्ति हुई थी। इसके बारे में विस्तार से यहाँ पढ़ें।

तब महर्षि कश्यप से गरुड़ ने चोंच में शाखा होने के कारण बड़ी कठिनाई से पूछा कि 'इसे मैं कहाँ छोड़ू। यदि यहाँ इस शाखा को छोड़ दिया तो असंख्य प्राणी मारे जाएंगे।' तब महर्षि कश्यप ने उन्हें बताया कि 'यहाँ से एक लाख योजन दूर एक निर्जन पर्वत है जहाँ कोई नहीं रहता। तुम इस शाखा को वहीँ छोड़ दो।' तब गरुड़ ने वैसा ही किया। वे तीव्र वेग से तुरंत ही १००००० योजन दूर उस पर्वत पर पहुंचे और उस शाखा को वहीँ छोड़ दिया। उसके भार से उस पर्वत के कई शिखर टूट कर गिर पड़े। फिर उसी पर्वत के एक शिखर पर बैठ कर गरुड़ ने उस हाथी और उस कछुए को खाया।

उन्हें खा कर गरुड़ फिर प्रचंड वेग से स्वर्ग की ओर बढे। उनकी गति इतनी तेज थी कि स्वर्गलोक तक हिल गया। तब इंद्र के पूछने पर देवगुरु बृहस्पति ने बताया कि विनता नंदन गरुड़ अमृत को ले जाने के लिए स्वर्ग की ओर आ रहे हैं। ये सुनकर इंद्र सहित सभी देवता अमृत की रक्षा के लिए अपने-अपने दिव्य अस्त्रों को लेकर वहां खड़े हो गए। उस होने वाले युद्ध के बारे में सोच कर तीनों लोक काँप गए।

जब गरुड़ वहां पहुंचे तो देवताओं ने अपने-अपने अस्त्रों से उनपर प्रहार किया। जिस समय युद्ध हो रहा था उस समय स्वयं विश्वकर्मा अमृत की रक्षा कर रहे थे। उधर युद्ध में गरुड़ ने अपने चोंच, पंजों और पंखों की मार से देवताओं को क्षत-विक्षत कर दिया। देवताओं ने उनपर सभी प्रकार के अस्त्रों का प्रहार किया किन्तु उसका कोई भी असर गरुड़ पर नहीं हुआ। उन्होंने अपनी पूरी शक्ति से देवताओं पर आक्रमण किया।

गरुड़ की मार से दुखी होकर साध्य और गन्धर्व पूर्व दिशा में, वसु और रुद्रगण दक्षिण दिया में, सभी आदित्य पश्चिम दिशा में और अश्विनी कुमार उत्तर दिशा में भाग चले। इस प्रकार गरुड़ ने अकेले ही उन ३३ कोटि देवताओं को खदेड़ दिया। तब अश्वक्रंदन, रेणुक, शूरवीर, क्रथन,तपन, उलूक, श्वसन, निमेष, प्ररुज और पुलिन, इन नौ महाबली यक्षों ने के साथ गरुड़ पर आक्रमण किया, किन्तु गरुड़ ने उन सभी को एक साथ परास्त कर दिया।

सभी देवों को परास्त कर गरुड़ अमृत के पास पहुंचे किन्तु वहां उन्होंने देखा कि अमृत को चारो ओर से बड़ी भयानक अग्नि ने घेर रखा है। वे जितना ऊपर जाते, अग्नि भी उतनी ही ऊपर होती जाती थी। तब गरुड़ ने अपने शरीर में ८१०० मुख प्रकट कर लिए और उनमें नदियों का जल भर लिया। फिर उस अथाह जलराशि को लाकर उन्होंने उस अग्नि पर डाल दिया जिससे वो अग्नि शांत हो गयी।

इसके बाद वे आगे बढे तो उन्होंने देखा कि वहां एक तीक्ष्ण चक्र अमृत की रक्षा कर रहा है। इस पर उन्होंने अपना रूप अत्यंत छोटा कर लिया और उसके पार चले गए। आगे उस अमृत की रक्षा के लिए नियुक्त किये गए दो विकराल सर्पों से उनका युद्ध हुआ किन्तु गरुड़ ने उन दोनों विषधरों के शरीर को अपनी चोंच से काट डाला और फिर वे अमृत को लेकर उड़ चले।

गरुड़ के अद्भुत पराक्रम से प्रसन्न होकर मार्ग में भगवान विष्णु ने उन्हें दर्शन दिए और वर मांगने को कहा। तब गरुड़ ने उनसे दो वरदान मांगे - पहला कि मैं सदा आपके ध्वज में स्थित रहूं, और दूसरा कि मैं बिना अमृत पिए ही अजर अमर हो जाऊं। श्रीहरि ने उन्हें ये दोनों वरदान दे दिए। तब गरुड़ ने श्रीहरि से कहा 'हे प्रभु! मैं भी आपको कोई वरदान देना चाहता हूँ।' ये सुनकर नारायण ने हँसते हुए गरुड़ को अपना वाहन बनने का वरदान मांग लिया। तब तथास्तु कर और उनसे आज्ञा ले गरुड़ वहां से आगे बढे।

उधर जब देवराज इंद्र ने देखा कि गरुड़ अमृत को ले जा रहे हैं तो क्रोध में आकर उन्होंने अपने वज्र से गरुड़ पर प्रहार किया। हालाँकि उस प्रहार से गरुड़ को कोई हानि नहीं हुई, किन्तु फिर भी महर्षि दधीचि, इन्द्रदेव और उस वज्र के सम्मान के लिए उन्होंने अपना एक पंख गिरा दिया। इससे सभी देवता और सिद्ध गरुड़ की स्तुति करने लगे। तब इंद्र ने गरुड़ के पराक्रम से प्रसन्न होकर उसका एक नाम 'सुपर्ण' भी रखा।

इसके बाद इंद्र ने गरुड़ की प्रशंसा करते हुए कहा 'तुम धन्य हो वीर। इस संसार में तुम्हारे अतिरिक्त ऐसा कोई नहीं जो मेरे इस वज्र का प्रहार इतनी सहजता से सह सके। तुम मुझे अपने बल के विषय में बताओ।' तब गरुड़ ने कहा 'हे देवराज। किसी को अकारण अपनी प्रशंसा नहीं करनी चाहिए किन्तु आपने पूछा है तो मैं बताता हूँ। मैं पर्वत, नदियां और समुद्र की समस्त जलराशि के साथ इस सारी पृथ्वी को तथा उसके ऊपर रहने वाले आपको भी अपने इस एक पंख पर उठा कर बिना परिश्रम के उड़ सकता हूँ। और तो और सम्पूर्ण चराचर लोकों को एकत्र कर यदि मेरे ऊपर रख दिया जाये तो मैं उन सबको बिना परिश्रम के ढो सकता हूँ। इसी से आप मेरे बल का अनुमान लगा लें।'

तब देवराज इंद्र ने गरुड़ से मित्रता कर ली और उनसे कहा 'मित्र! तुम्हे पहले ही भगवान विष्णु से अमर होने का वरदान मिल चुका है इसीलिए ये अमृत तुम्हारे किसी काम का नहीं। तुम इसे जिसे भी दोगे, वो इसका दुरूपयोग करेंगे। इसीलिए तुम इस अमृत को मुझे लौटा दो।' तब गरुड़ ने उन्हें सारी बात बताई और कहा 'हे देवराज! मैं इसका दुरुपयोग नहीं होने दूंगा। मैं इसे जहाँ भी रख दूँ, आप उसे वहां से उठा लीजियेगा।'

इससे प्रसन्न होकर इंद्र ने गरुड़ से वरदान मांगने को कहा। तब गरुड़ ने नाग और सर्पों को अपना आहार बनाने का वरदान माँगा। इंद्र ने उन्हें ये वरदान दे दिया। इसके बाद गरुड़ उस अमृत को लेकर अपनी माता और नागों के पास लौटे। उन्होंने कहा 'मैं वचन के अनुसार इस अमृत को ले आया हूँ। अब मेरी माता दासत्व से मुक्त हो जाये।' तब कुद्रू और सभी नागों ने तथास्तु कहा और इसके बाद अमृत की ओर बढे।

इस पर गरुड़ ने कहा 'मैं इसे यहाँ कुशों पर रख देता हूँ। आप सभी स्नानादि से निवृत होकर इसका पान करें।' इस बात को मान कर सभी नाग स्नान करने चले गए और इंद्र अपनी माता विनता के साथ अमृत को कुश पर रख कर वहां से चले गए। इसी बीच इंद्र ने अमृत को प्राप्त कर लिया और पुनः स्वर्गलोक लौट गए। 

जब नाग वहां आये तो अमृत को वहां ना पाकर बड़े पछताए। उन्होंने सोचा कि हमारी माता ने जो छल विनता के साथ किया, ये उसी का फल है। बाद में ये सोच कर कि शायद कुश पर अमृत की कुछ बूंदें गिरी हो, सारे नाग उसे चाटने लगे। इससे कुश की धार से उनकी जीभ दो टुकड़ों में बंट गयी। तभी से आज तक नागों की जीभ दो हिस्सों में बटी रहती है। इसके बारे में विस्तार ये यहाँ देखें। 

इसके बाद देवों से सम्मानित हो और श्रीहरि के वाहन बन गरुड़ स्वतंत्रता से विचरण करने लगे। इंद्र ने उन्हें 'खगेश', अर्थात पक्षियों का राजा बनाया। उन्हें पक्षियों का इंद्र भी कहा जाता है। इन्हे तार्क्ष्य और वैतनेय भी कहा जाता है। इनके बल का प्रताप ऐसा है कि बाद में कई बार अनेकों महाबलशालियों की बल की तुलना इनसे की जाती है। इसका सबसे प्रमुख उदाहरण है महाबली हनुमान। रामायण में कई बार हनुमान के बल और उनके उड़ने के वेग को गरुड़ के समान कहा गया है।

इनका जन्म सतयुग में हुआ किन्तु अजर अमर होने के कारण ये रामायण और महाभारत काल में भी थे। रामायण में जब मेघनाद ने श्रीराम और लक्ष्मण को नागपाश में बांध दिया था तो गरुड़ ने ही वहां आकर दोनों को उस बंधन से मुक्त करवाया था। इससे गरुड़ को श्रीराम के विष्णु अवतार होने के विषय में संदेह हो गया। तब महादेव की आज्ञा से काकभुशुण्डि ने गरुड़ को उस भ्रम को दूर किया था। महाभारत में भी ये श्रीकृष्ण के वाहन के रूप में वर्णित हैं। इन्ही पर बैठ कर श्रीकृष्ण और सत्यभामा ने नरकासुर का वध किया था।

ययाति की पुत्री माधवी की कथा के सन्दर्भ में भी इनका वर्णन आता है जहाँ इन्होने अपने मित्र गालव ऋषि की सहायता की थी। पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन के समय जब सभी देवता मंदार को उखाड़ने में असफल रहे तब भगवान विष्णु की आज्ञा से इन्होने मंदराचल पर्वत को उखाड़ लिया था और उसे अपने पंख पर रख कर समुद्र तक लाये थे। महाभारत के अनुसार ये कार्य शेषनाग ने किया था।

गरुड़ का विवाह पक्षी कुल की एक कन्या से हुआ जिनका नाम उन्नति था। उनसे इन्हे एक पुत्र हुआ जिसका नाम सुमुख था। बौद्ध धर्म में भी गरुड़ का वर्णन है जहाँ इन्हे 'धर्मपाल' के नाम से जाना जाता है। जैन धर्म में ऐसी मान्यता है कि उनके १६वें तीर्थंकर भगवान शांतिनाथ के यक्ष के रूप में गरुड़ ने ही जन्म लिया था। इन्ही के नाम पर महर्षि व्यास ने गरुड़ महापुराण की रचना की है। इन्ही के ऊपर 'सुपर्णाख्यान' नाम का महाकाव्य भी वैदिक काल में रचा गया था। गरुड़ की ये मूल कथा हमें महाभारत के आदिपर्व के आस्तिकपर्व में मिलती है। 

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